Friday, 24 May 2019

जो पास सामने



कविता poem_mohan rana
















अपना एक देस

लोगों ने वहाँ बस याद किया भूलना ही
था ना अपना एक देस बुलाया नहीं फिर,
कोई ऐसा वादा भी नहीं कि इंतज़ार हो,
पहर ऐसा हवा भटकती
सांय सांय सिर फोड़ती खिड़की दरवाज़ों पर,
दराज़ों को खंगालता हूँ सबकुछ उनमें पर कुछ भी नहीं जैसे
चीज़ें इस कमरे में चीज़ें मैं भी एक चीज़ जैसे
मुझे ख़ुद भी नहीं मालूम मेरी उम्मीद क्या निरंतर खोज के सिवा,
अपनी नब्ज़ पकड़े मैं देस खोजता हूँ नक़्शों में
धूप की छाया से दिशा पता करते
पर मिलीं मुझे शंकाएँ हीं अब तक

मोहन राणा © 2019 

(स्रोत कविता संग्रह  /  रेत का पुल,2012)

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