"घर बैठे छापें दुनिया में बेचें"
रेट लेंगे उतना ही पर तृप्ति किसे
और और कहते कहते फिर भी
नुक़्ते में नुक़्ते में जुड़ते अक्षर पर वह शब्द
नहीं है मेरे शब्द कोश में
विश्वास -- पर पूरा कोश भरा है अविश्वास से !
शरमा जाते हैं, वे अगर जी परन्तु
लक्ष्मी चाहे जिस झंडे की हो ;
वाम हो बजरंग हो रंग तो एक ही लाल
काँटा तो घरम काँटा तोल कर
पर हो बट्टा सौदे में,
रद्दी से ही बीन कभी कविता भी पाई जाती है
किसी विरले पल साँप सीढ़ी के खेल में किस्मत की जे बात,
किताब में लिखी है
बाज़ार भाव में कारीगर की कीमत
दो कौड़ी सेट है रचना मोक्षपथ में
अब तो आप भी मानते होंगे ना
करोना का कोई धरम नहीं होता,
रॉयल्टी किस बात की - कविता भी कोई काम है भला
अबकी बार हम फिर भूल जाएँगे
लौटते हुए घर का पता
लौटते हुए घर का पता
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