Tuesday 28 May 2019

Poetry reading in May

The Far-Flung Shuffle
 
Gale Burns and Selina Rodrigues present a reading from far and wide:

Usha Akella, (Texas, USA), Paddy Bush (Ireland), Mohan Rana (Bath, UK), Theo Dorgan (Ireland), Adam Crittenden (USA), Ella Frears (London, UK)


Friday 24 May 2019

जो पास सामने



कविता poem_mohan rana
















अपना एक देस

लोगों ने वहाँ बस याद किया भूलना ही
था ना अपना एक देस बुलाया नहीं फिर,
कोई ऐसा वादा भी नहीं कि इंतज़ार हो,
पहर ऐसा हवा भटकती
सांय सांय सिर फोड़ती खिड़की दरवाज़ों पर,
दराज़ों को खंगालता हूँ सबकुछ उनमें पर कुछ भी नहीं जैसे
चीज़ें इस कमरे में चीज़ें मैं भी एक चीज़ जैसे
मुझे ख़ुद भी नहीं मालूम मेरी उम्मीद क्या निरंतर खोज के सिवा,
अपनी नब्ज़ पकड़े मैं देस खोजता हूँ नक़्शों में
धूप की छाया से दिशा पता करते
पर मिलीं मुझे शंकाएँ हीं अब तक

मोहन राणा © 2019 

(स्रोत कविता संग्रह  /  रेत का पुल,2012)

Wednesday 15 May 2019

कविता


पुरानी खिड़की


दूरबीन में नज़रबंद हैं दूरियाँ
वो जो अटारी में कहीं  रखी है

पुरानी खिड़की पर ज़रा भी कहीं निशान नहीं
हवा धूप और बारिश का
समय पर किया रंग चमकता है,
फिर भी उसे पुराना कहा जाता है पुरानी खिड़की
किताबों में बंद पड़े हैं शब्द अनगिनत
गत्ते के डिब्बों में  बंद पड़ी हैं किताबें,
पुरानी खिड़की  के सिर्फ़ शीशे हुए हैं पुराने
जैसे पुराना ज़माना
पुरानी कमीज़
पुरानी कविता
पुरानी कोई बात,
उसके जीवन  के अस्सी साल दो पन्नों में सिमटे हैं
दो पन्ने कंप्यूटर की स्मृति में जमा हैं

पुरानी खिड़की से स्थिर नहीं दिखती दुनिया
डगमगाती दुनिया  में धीरे से हिलती हैं नाशपाती के पेड़ की टहनियाँ,
उतरते हैं बादल भरती है उड़ान चिड़िया
ढलानों  पर उतरती  हैं भेड़ें दोपहर की तरह,
पुरानी खिड़की से दुनिया अभी भी
भरी दिखती है अज्ञात रास्तों से

जो नया है उसे पुराना होना है
जो आज पुराना है वह कल भी पुराना है



16.4.1995



( जैसे जनम कोई दरवाज़ा)
कविता संग्रह --- 1997

Sunday 12 May 2019

कविता फिर

 
कविता - मोहन राणा Poem - Mohan Rana
कविता - मोहन राणा Poem - Mohan Rana

अगर 

 

अगर जंगल ना होते तो कैसी होती पहचान पेड़ की
अगर दुःख ना होता तो ख़ुशी को कैसे जानता

बनता कुछ और नहीं
क्षण भर में ही अजन्मा नहीं
बस एक क़मीज़ पतलून
सुबह शाम भोजन
एक नन्ही सी उम्मीद
कोई याद कभी करे किसी एकांत में

अगर चुनता मैं कुछ और
कह पाता कभी जो रह जाता है
बहरे प्रदेशों में अनसुना हमेशा


(2009)

(शेष अनेक)
कविता संग्रह
©मोहन राणा
2019
[Shesh Anek /Poetry  collection]
Mohan Rana

Monday 6 May 2019

स्कूल

स्कूल


पहले मुझे क़िताब की जिल्द मिली
फिर एक कॉपी
बस्ते में और कुछ नहीं बचा इतने बरस बाद
घंटी सुनते ही जाग पड़ा
मैदान में कोई नहीं था दसवीं बी में भी कोई नहीं
क्या आज स्कूल की छुट्टी है सोचा मैंने

हवाई जहाज मध्य यूरोप में कहीं था और मैं
कई बरस पहले अपने स्कूल

धरती ने ली सांस
हँसा समुंदर
आकाश खोज में है अनंतता की

बहुत पहले मैंने उकेरा अपना नाम मेज पर
समय की त्वचा के नीचे धूमिल
कोई तारीख़

कोई दोपहर उड़ा लाती हवा के साथ
किसी बात की जड़
मैं वह दीवार हूँ
जिसकी दरार में उगा है वह पीपल
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रचनाकाल: 5.9.2006

कविता संग्रह



© मोहन राणा  2019
 


Living in Language

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