Wednesday, 15 May 2019

कविता


पुरानी खिड़की


दूरबीन में नज़रबंद हैं दूरियाँ
वो जो अटारी में कहीं  रखी है

पुरानी खिड़की पर ज़रा भी कहीं निशान नहीं
हवा धूप और बारिश का
समय पर किया रंग चमकता है,
फिर भी उसे पुराना कहा जाता है पुरानी खिड़की
किताबों में बंद पड़े हैं शब्द अनगिनत
गत्ते के डिब्बों में  बंद पड़ी हैं किताबें,
पुरानी खिड़की  के सिर्फ़ शीशे हुए हैं पुराने
जैसे पुराना ज़माना
पुरानी कमीज़
पुरानी कविता
पुरानी कोई बात,
उसके जीवन  के अस्सी साल दो पन्नों में सिमटे हैं
दो पन्ने कंप्यूटर की स्मृति में जमा हैं

पुरानी खिड़की से स्थिर नहीं दिखती दुनिया
डगमगाती दुनिया  में धीरे से हिलती हैं नाशपाती के पेड़ की टहनियाँ,
उतरते हैं बादल भरती है उड़ान चिड़िया
ढलानों  पर उतरती  हैं भेड़ें दोपहर की तरह,
पुरानी खिड़की से दुनिया अभी भी
भरी दिखती है अज्ञात रास्तों से

जो नया है उसे पुराना होना है
जो आज पुराना है वह कल भी पुराना है



16.4.1995



( जैसे जनम कोई दरवाज़ा)
कविता संग्रह --- 1997

वापसी : मोहन राणा

  वापसी एक नीरव जगह तुम बेचारे पेड़ को अकेला छोड़ आईं!  जमे हुए विस्तार में जो वृद्ध हो चुके ये पहाड़   लंबे शारदीय उत्सव का उपद्रव मचाते है...