Thursday, 12 August 2021

दो कविताएँ / Two Poems

रागदिल्ली के जुलाई अंक में  दो कविताएँ

 

खड़ीक* का पेड़

 

मैं किसी को नहीं जानता था

मैं सबको भूल जाऊँगा  

पर

मैं पत्थर था बहते पानी में

आकाश को निहारता

मैं स्मृति था भविष्य की

मैं जीव नहीं अजीव नहीं

कोई नाम जो अब नहीं बंधा

किसी जीवन की पहचान से

पर

पास उतना ही दूर है अभी से

जलते जंगलों में उस पार

अभी कभी नहीं मिलता

कल आज कल ही मिलते

नये रूपों में आसक्त ग्रीष्म की इकहरी छाया में

उनकी मर्मर निकटता को संभालता,

मैं जड़गत एकांत में!

[*खड़ीक का पेड़ उत्तराखंड में पाया जाता है और पशु चारे के लिए उपयोग में आता है।] 

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 पहचान जाने उस अपने से

 

खुली आँखों को बंद किये बंद कानों को खोले आत्मा की खोल में

चलता मैं बूझता वह पहला शब्द तुम्हारे लिए

कि तुम सच हो जाओ हमेशा के लिए

एक अनायास झोंके में लड़खड़ाई अस्तगामी दोपहर

कि हिले नहर पर झुके इकहरे प्रतिबिम्ब हल्के से

छुपी चमक कौंधी हरी सतह पर,

मेरे कानों ने पढ़ा हवा की उस लहर को

लिखा उसमें जैसे तुमने फुसफुसाकर कि

पूरा हुआ एक जीवन कहीं चिर मौन में

कि आरंभ हुआ गोचर पहली सांस के सीत्कार में!

अपने अर्धविरामों से बाहर झाँक

पहचाना हमने अपरिचितों में

अपने लायक भूख और प्यास

कोई मैं और तुम उनमें

जो कुछ मेरा कुछ तुम्हारा,

रोपते जीवन के रिक्त स्थानों में जंगल जहाँ हवाएँ साँस ले पायें

अपनी छायाओं का बोझ उतार ले पाए दोपहर दिवास्वप्न

और कुछ देर बस यूँ ठहर जाय

फिर अदल बदल सौंपकर बढ़ लें अपने अकेलेपन को  

सुना कर खोई हुई स्मृतियों में एक दूसरे को

दूर की अनुगूँजों में आवाज़ें लंबा साथ पैदल समझ  कर

छोड़ गया एक बादल अपने हिस्से का आकाश

सजल हो गई आँखें नीलिमा पर अपलक

पानी का एक घूँट बहा गया कुछ अटका

बहुत दिन हुए, बहुत दिन हो जाएँगे, फिर फिर

समय सिक्त स्मृति शेष कोई बूँद गिरेगी

सूखी बावड़ी के  बीते सोपानों पर

मैं एक बार फिर लिखूँगा मिट्टी से

मिट्टी का पुतला

जो कुछ यहाँ वो

मैं हूँ जो देह नहीं

तुम्हें याद करता, तुम जो देह नहीं।

 

 

 

 

रागदिल्ली के जुलाई अंक में  दो कविताएँ

https://www.raagdelhi.com/poetry-by-mohan-rana/

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